Saturday, 11 July 2015

धरती का टुकड़ा


>>> धरती का टुकड़ा <<<
धरती का मिलता जो टुकड़ा
कुछ छाया के कुछ ईंधन के,
फल और सुन्दर पेड़ लगाकर
  सजाता देता मैं उसका मुखड़ा, 


लताएँ फैली होती चहुँदिश 
झुरमुट किनारों पर लगाता,
रंग बिरंगे पक्षी रहते उसमें
मस्ती का सदा मेला लगा होता ,


हाथी मस्ती में टहलते 
भालू काका घूमते रहते,
हिरणों की कुलांचें देखकर
हम सब तालियाँ बजाते रहते.


शेर जोरों से जब गरजते
हम घबराकर कहीं छिप जाते,
पेड़ों पर झूलते बन्दर मामा
चिढ़ाकर उनको हम खुश हो लेते,

गुस्से में हम पर जब वो लपकते
हम नौ दो ग्यारह हो जाते.


नदिया भी वहां से गुजरती
  कल-कल करती बहती रहती,
मस्ती कर जब हम थक जाते
   डुबकी लगा तट पर ही सो जाते .

..विजय जयाड़ा


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